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शक्ति पृथककरण का अर्थ, परिभाषा, शक्ति पृथककरण के गुण और शक्ति पृथककरण के दोष

शक्ति पृथककरण का अर्थ, परिभाषा, शक्ति पृथककरण के गुण और शक्ति पृथककरण के दोष`

 


शक्ति पृथककरण का अर्थ, परिभाषा, शक्ति पृथककरण के गुण और शक्ति पृथककरण के दोष


"Knowlege with ishwar"


शक्ति पृथककरण का अर्थः- 


मांटेस्क्यु ने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम  "Spirit of the laws"है। इसमें उन्होनें एक नये सिद्धांत का प्रतिपादन किया । यह सिद्धांत था- ’’शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत’’  इसमे उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि शासन के तीनों अंगों- कार्यपालिका, न्यायपालिका व व्यवस्थापिका का संचालन व नेतृत्व अलग अलग व्यक्तियों के द्वारा किया जाना चाहिए। ये तीनों अंग किसी एक व्यक्ति के पास होने से उस पर कोई अंकुश नहीं रहेगा। तथा इससे नागरिको की स्वतंत्रता तथा अधिकार सुरक्षित नही रह सकेंगें।


अतः शक्ति पृथक्करण का अर्थ है कि शासन के तीनों अंगों का संचालन किसी एक व्यक्ति के द्वारा न किया जाकर अलग अलग व्यक्तियों के द्वारा किया जाना चाहिए।


दूसरे शब्दों में शासन के तीन अंग होते हैं- 1 कार्यपालिका 2 न्यायपालिका 3  व व्यवस्थापिका जब ये तीनों अपना अपना कार्य करें और एक दूसरे  से अलग रहे तो  इसे ही शक्ति पृथक्करण कहा जाता है। व्यवस्थापिका या विधायिका कानून बनाने का कार्य करें, कार्यपालिका कानूनों का पालन कराए और न्यायपालिका कानून का पालन न करने पर उसे दण्ड दे यही शक्ति पृथक्करण है।


शक्ति पृथक्करण की परिभाषाः-


मांटेस्क्यु के अनुसार- ’’जब व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की शक्तियॉ एक ही व्यक्ति या समुदाये हाथ में केंद्रित होती है तो किसी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं रह जाती। यदि न्यायाधीशों  की शक्तियों को व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की शक्तियों स पृथक नहीं किये जाये तो नागरिको को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सकती।’’


3. गैटिक महोदय के शब्दों में-’’ यह सिद्धांत कि शासन  के विभिन्न कार्य व्यक्तियों  की विभिन्न संस्थाओं द्वारा किये जाने चाहिए, प्रत्येक विभागों में दूसरे विभागों का हस्तक्षेप किये बिना अपने कार्यक्षेत्र तक ही सीमित रहे ओर अपने क्षेत्र में पूर्णतया स्वतंत्र रहे, शक्ति प्रथक्करण का सिद्धांत कहा जाता है।’’


4. डॉ इकबाल नारायण ने लिखा है कि- ’’ राजशक्ति की अभिव्यक्तिी तथा प्रयोेग तीनों रूपों में स्वतंत्रतापूर्वक हो, व्यवस्थापन कार्यपालन तथा न्याय। इन तीनो से संबंधित शक्तियॉ  पृथक पृथक हाथों में रहे, इनसें संबधित विभाग अपने अपने क्षेत्र  में पूर्ण स्वतत्र हो तथा कोई भी एक दूसरे विभाग की शक्ति तथा उसके अधिकारों में हस्तक्षेप न करें, इस सिद्धांत को राजशक्ति के प्रथककरण का सिद्धांत कहते हैं।’’


 शक्ति पृथककरण का अर्थ, परिभाषा, शक्ति पृथककरण के गुण और शक्ति पृथककरण के दोष


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 शक्ति पृथक्करण के गुणः-


1. शासन की निरंकुशता पर रोकः- शक्ति प्रथककरण सिद्धांत में  शासन की समस्त शक्तियॉ किसी एक व्यक्ति के हाथ में निहित न होकर विभाजित होती है। जिससे व्यक्ति निरंकुश नही होता है। शासन के तीन अंगों की शक्तियॉ किसी एक व्यक्ति के हाथ में होने से वह निरंकुश हो जाता है क्योंकि उस पर रोक लगाने वाला कोई नही होता है, परंतु शक्ति पृथक्करण से निरंकुशता का भय नही होता है और लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना होती हैं।


2. कुशल एवं व्यवस्थित शासनः- आज के युग में शासन का कार्य बहुत अधिक विस्तृत  हो गया है। जिसे किसी एक व्यक्ति के द्वारा नियंत्रित किया जाना एक कठिन कार्य है। अतएव शक्तियों का विभाजन हो जाने से कुशल व व्यवस्थित शासन किया जा सकता है। सभी अंगों के पास सिमीत कार्य होते है, क्योंकि कार्यो को आपस में बांट लिया जाता है जिससे शासन के किसी भी अंग पर अतिरिक्त कार्यों का बोझ नहीं हाता है। एवं सभी कार्य पूर्ण निपूणता से किये जाते है।


3. शासन में स्थायित्व की प्राप्तिः- शक्ति पृथक्करण में सभी अंग निर्भिक होकर कुशलपुर्वक कार्य करते है, क्योंकि इसमे कोई भी अंग अन्य अंग पर निर्भर नही होता है ओर न ही उसके प्रति उत्तरदायी होता है। शासन के सभी अंग संविधान पर निर्भर होते हैं। जिससे सभी अंग अपना कार्य बिना रोकटोक के करतें है। एवं दीर्घकालिन नीतियों को अपनातें है।


4.स्वतंत्र न्यायपालिकाः- शक्ति पृथककरण सिद्धांत स्वतंत्र न्यायपालिका पर अधिक बल देता है। शक्ति पृथककरण सिद्धांत में न्यायपालिका स्वतंत्र होती हैं उस पर किसी का भी नियंत्रण अथवा दबाव नहीं होता है जिससे वह बिना किसी भय के , बिना किसी पक्षपात के जनता को न्याय देती है एवं दोषियों को दण्ड देती है।


5. श्रेष्ठ प्रतिभाओं की सेवाएं उपलब्धः- शक्ति पृथककरण सिद्धांत मे कार्यपालिका अपने सहयोगियों का चुनाव व्यवस्थापिका से बाहर भी कर सकती है जिससे नई नई प्रतिभाओं व विद्वान अधिकारियो व कर्मचारियों की सेवा उपलब्ध हो सकती है। 


6. शासन में गतिशीलताः- शक्ति पृथककरण सिद्धांत में  शक्ति के पृथक्करण के कारण कार्यों में गतिशीलता होती है। व्यक्तियो की समस्याओ का निराकरण शीघ्रता से होता है।


 शक्ति पृथककरण का अर्थ, परिभाषा, शक्ति पृथककरण के गुण और शक्ति पृथककरण के दोष


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शक्ति पृथककरण  के दोषः-


1. अपूर्ण एवं अवैज्ञानिक सिद्धांतः- कई विद्वानों का मानना है कि मांटेस्क्यु ने शासन के तीनों अंगों का पृथक्करण तो कर दिया किंतु पृथक्करण से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान प्रस्तुत नहीं किया है जिसके कारण यह अवैधानिक है। 


2. संघर्ष को प्रोत्साहनः- शक्ति पृथककरण सिद्धांत में विभिन्न विभागों एवं शासन के अंगों में टकराहट की स्थिति निर्मीत होती है। इन विभागों में मतभेद की स्थिति पनपती है। सभी विभाग एक दूसरे के कार्यो को करनें में आनाकानी करतें है। शक्ति पृथक्करण में सभी अंग एक साथ ताल मेल बनाकर चलनें में असमर्थ हो जाते है।


3. क्रियाशीलता में कमीः- शक्ति पृथककरण सिद्धांत में शासन केें अंगों  में समंजस्य की स्थिति होती है उनके अंदर सामंजस्य का अभाव होता है। शक्ति पृथक्करण में यह आवश्यक है कि यदि  उद्देश्यों को प्राप्त करना है तो पूर्ण सामंजस्य से काम करें।


4. शक्ति पृथक्करण असंभवः- जिस प्रकार का पृथक्करण् शक्ति पृथकरण के सिद्धांत मेें विदित है उस प्रकार का होना असंभव है। शासन के सभी अंग एक दूसरे से जुडे होते हैं उन्हें पुरी तरह से अलग करना असंभव है। संसार में ऐसा कोई सा भी देश नहीं है जहां कार्यपालिका न्यायपालिका और व्यवस्थापिका एक दूसरे से पूर्ण स्वतंत्र और अलग हो।


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